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कल्पना के उस पार

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कल्पना के उस पार से इस पार यात्रा करता मैं और मेरा अधीर  मन.. पिछले चार महीनों में हमने अक्सर ऐसा महसूस किया कि तुम गयी ही कहाँ, यहीं पर तो बैठी हो बिस्तर पर पड़े बच्चों के स्कूल के बस्ते चेक करती, हम सबके कपड़े जो इधर उधर बिखरे से रहते हैं, उन्हें समेटती, घर के तमाम काम जो मैं अब भी नहीं समझ पाता उन सबको चंद मिनटों में करते करते निया को नई कविता सिखाती और अनंत को होमवर्क समझाती.. और में खड़ा खड़ा आवाक सा बस देखता रहता हूँ तुमको एकटक। जब-जब ऐसे तुम घर आती हो, घर वापस घर जैसा हो जाता है। मैं कोशिश करता हूँ हर बार तुम्हारे आने से पहले घर को तुम जैसा ही सहेजने की, कि फिर से तुम्हारे चेहरे पर एक मुस्कुराहट ले आऊं.. मुझे याद है काल रात भी आयी थी तुम चुपचाप, दबे पाँव हल्की सी मुस्कान लिए और पिछली बार शिल्प मेले से ली वो नई बालियां अपने कानों से सटाकर देखती रही फिर बिना उन्हें पहने ही सहेज कर डिब्बे में रख गयीं.. तुम्हारे जाने के बाद में देर तक उस डिब्बे को हाथो में लिए तुम्हारे वापस आने का इंतज़ार करता रहा। तुम फिर नहीं आयीं। मैन धीरे से वो डब्बा खोला और उन बालियों को अपने हाथो में ले लिय...