कल्पना के उस पार
कल्पना के उस पार से इस पार यात्रा करता मैं और मेरा अधीर मन.. पिछले चार महीनों में हमने अक्सर ऐसा महसूस किया कि तुम गयी ही कहाँ, यहीं पर तो बैठी हो बिस्तर पर पड़े बच्चों के स्कूल के बस्ते चेक करती, हम सबके कपड़े जो इधर उधर बिखरे से रहते हैं, उन्हें समेटती, घर के तमाम काम जो मैं अब भी नहीं समझ पाता उन सबको चंद मिनटों में करते करते निया को नई कविता सिखाती और अनंत को होमवर्क समझाती..
और में खड़ा खड़ा आवाक सा बस देखता रहता हूँ तुमको एकटक। जब-जब ऐसे तुम घर आती हो, घर वापस घर जैसा हो जाता है। मैं कोशिश करता हूँ हर बार तुम्हारे आने से पहले घर को तुम जैसा ही सहेजने की, कि फिर से तुम्हारे चेहरे पर एक मुस्कुराहट ले आऊं..
मुझे याद है काल रात भी आयी थी तुम चुपचाप, दबे पाँव हल्की सी मुस्कान लिए और पिछली बार शिल्प मेले से ली वो नई बालियां अपने कानों से सटाकर देखती रही फिर बिना उन्हें पहने ही सहेज कर डिब्बे में रख गयीं..
तुम्हारे जाने के बाद में देर तक उस डिब्बे को हाथो में लिए तुम्हारे वापस आने का इंतज़ार करता रहा। तुम फिर नहीं आयीं। मैन धीरे से वो डब्बा खोला और उन बालियों को अपने हाथो में ले लिया और न जाने कब वहीं पड़े-पड़े सो गया। अब जब कभी सुबह ऐसे आँख खुलती है तो बच्चों को नाश्ता करा कर सोचता हूँ कि कभी तुम्हारी उस पीली कुर्ती और दुपट्टे को जिसे तुम सबसे ज़्यादा पसंद करती थीं सामने पड़ी कुर्सी पर ऐसे सजा दूँ जैसे की तुम नहीं होकर भी हो वहाँ। एक प्याली अपने और एक तुम्हारे लिए चाय बना दूं और तुमसे पूछुं कि अब तुम्हारी पीठ का दर्द कैसा है या फिर सुबह-सुबह बच्चों के टिफ़िन में क्या रखा करूँ?
सिर्फ मैं नहीं, शायद हम तीनों ही सोते-जागते ऐसे सपने अब रोज़ ही देखते हैं जिनमे तुम यहीं होती हो कभी किचन तो कभी बालकनी में, कहीं दूर नहीं, हमारे आस पास। तुम्हे तो पता है न तुम्हारे बिना ये घर , घर जैसा बिल्कुल नहीं रहता। ऐसे ही आती रहना हमेशा और सम्भाले रखना
हम सबको।
तुम्हारा नहीं होना अब तक बर्फ पर पड़ी एक धुंधली सी सफेद चादर जैसा लगता रहा और ये चार महीने, चार सौ साल से भी ज़्यादा लंबे और बोझिल.. हम लोग अब भी अपने मन को फुसला कर जब जब आँखे भींचते हैं, तुम हम तीनों को अपनी बाहों में भर लेती हो। कुछ मेरी कमीज गीली हो जाती है कुछ तुम्हारे दुपट्टे का किनारा, पर तुम्हारा साथ कायम रहता है हमेशा, मेरे अस्तित्व में, मेरे मन में हर रोज़, हर पल...'
रचना दी, आपकी स्मृति में लिखित..
ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे और हम सबको ऐसी कल्पना को सच समझ कर जीवन में आगे बढ़ते रहने का सामर्थ्य..
- दीप्ति
और में खड़ा खड़ा आवाक सा बस देखता रहता हूँ तुमको एकटक। जब-जब ऐसे तुम घर आती हो, घर वापस घर जैसा हो जाता है। मैं कोशिश करता हूँ हर बार तुम्हारे आने से पहले घर को तुम जैसा ही सहेजने की, कि फिर से तुम्हारे चेहरे पर एक मुस्कुराहट ले आऊं..
मुझे याद है काल रात भी आयी थी तुम चुपचाप, दबे पाँव हल्की सी मुस्कान लिए और पिछली बार शिल्प मेले से ली वो नई बालियां अपने कानों से सटाकर देखती रही फिर बिना उन्हें पहने ही सहेज कर डिब्बे में रख गयीं..
तुम्हारे जाने के बाद में देर तक उस डिब्बे को हाथो में लिए तुम्हारे वापस आने का इंतज़ार करता रहा। तुम फिर नहीं आयीं। मैन धीरे से वो डब्बा खोला और उन बालियों को अपने हाथो में ले लिया और न जाने कब वहीं पड़े-पड़े सो गया। अब जब कभी सुबह ऐसे आँख खुलती है तो बच्चों को नाश्ता करा कर सोचता हूँ कि कभी तुम्हारी उस पीली कुर्ती और दुपट्टे को जिसे तुम सबसे ज़्यादा पसंद करती थीं सामने पड़ी कुर्सी पर ऐसे सजा दूँ जैसे की तुम नहीं होकर भी हो वहाँ। एक प्याली अपने और एक तुम्हारे लिए चाय बना दूं और तुमसे पूछुं कि अब तुम्हारी पीठ का दर्द कैसा है या फिर सुबह-सुबह बच्चों के टिफ़िन में क्या रखा करूँ?
सिर्फ मैं नहीं, शायद हम तीनों ही सोते-जागते ऐसे सपने अब रोज़ ही देखते हैं जिनमे तुम यहीं होती हो कभी किचन तो कभी बालकनी में, कहीं दूर नहीं, हमारे आस पास। तुम्हे तो पता है न तुम्हारे बिना ये घर , घर जैसा बिल्कुल नहीं रहता। ऐसे ही आती रहना हमेशा और सम्भाले रखना
हम सबको।
तुम्हारा नहीं होना अब तक बर्फ पर पड़ी एक धुंधली सी सफेद चादर जैसा लगता रहा और ये चार महीने, चार सौ साल से भी ज़्यादा लंबे और बोझिल.. हम लोग अब भी अपने मन को फुसला कर जब जब आँखे भींचते हैं, तुम हम तीनों को अपनी बाहों में भर लेती हो। कुछ मेरी कमीज गीली हो जाती है कुछ तुम्हारे दुपट्टे का किनारा, पर तुम्हारा साथ कायम रहता है हमेशा, मेरे अस्तित्व में, मेरे मन में हर रोज़, हर पल...'
रचना दी, आपकी स्मृति में लिखित..
ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे और हम सबको ऐसी कल्पना को सच समझ कर जीवन में आगे बढ़ते रहने का सामर्थ्य..
- दीप्ति

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