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कल्पना के उस पार

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कल्पना के उस पार से इस पार यात्रा करता मैं और मेरा अधीर  मन.. पिछले चार महीनों में हमने अक्सर ऐसा महसूस किया कि तुम गयी ही कहाँ, यहीं पर तो बैठी हो बिस्तर पर पड़े बच्चों के स्कूल के बस्ते चेक करती, हम सबके कपड़े जो इधर उधर बिखरे से रहते हैं, उन्हें समेटती, घर के तमाम काम जो मैं अब भी नहीं समझ पाता उन सबको चंद मिनटों में करते करते निया को नई कविता सिखाती और अनंत को होमवर्क समझाती.. और में खड़ा खड़ा आवाक सा बस देखता रहता हूँ तुमको एकटक। जब-जब ऐसे तुम घर आती हो, घर वापस घर जैसा हो जाता है। मैं कोशिश करता हूँ हर बार तुम्हारे आने से पहले घर को तुम जैसा ही सहेजने की, कि फिर से तुम्हारे चेहरे पर एक मुस्कुराहट ले आऊं.. मुझे याद है काल रात भी आयी थी तुम चुपचाप, दबे पाँव हल्की सी मुस्कान लिए और पिछली बार शिल्प मेले से ली वो नई बालियां अपने कानों से सटाकर देखती रही फिर बिना उन्हें पहने ही सहेज कर डिब्बे में रख गयीं.. तुम्हारे जाने के बाद में देर तक उस डिब्बे को हाथो में लिए तुम्हारे वापस आने का इंतज़ार करता रहा। तुम फिर नहीं आयीं। मैन धीरे से वो डब्बा खोला और उन बालियों को अपने हाथो में ले लिय...
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याद है, आज 25 नवंबर है... :) आज के दिन मैने पहली बार तुम्हारी आवाज़ सुनी थी.…   तुम्हारी संजीदा आवाज़, तुम्हारे लफ्ज़ जो थम थम के निकल रहे थे और जिनके पीछे तुम्हारा मुस्कुराता हुआ, प्यारा सा चेहरा भी मुझे दिख रहा था, पर ज़रा धुँधला धुँधला…      वो वक़्त याद कर रही हूँ जब मुझे समझ नही आता था की 'हेलो' के आगे तुमसे क्या बात करूँगी..और अब देखो तो, तुमसे कहने को इतना कुछ होता है कि मेरे लफ्ज़ ही नहीं  थमते! कैसे बदल गया इतना कुछ इतनी जल्दी और इतना खूबसूरत बना गया हमारे जीवन को.काश ये खूबसूरती यूँ ही बरकरार रहे हमेशा... हमेशा.. ये मौसम और ये तारीख तुम्हारे होने का अहसास दिलाते हैं...  उस वक़्त, तुम्हारे नहीं होकर भी होने का ! देखो, उन दिनों को याद करते करते मैने तुम्हारे लिए कुछ लिखा है… " जब सुबहें कुहरे में लिपटी ठंडी हवाओं से मुझे जगाती थी , और दोपहर तुमसे मीलों दूर होने के उदासी में बीत जाती थी, ढलती शाम के अंधेरों में धुन्ध बनकर , एक परछाई सी लहराती थी... मै जब जब हाथ बढ़ाकर उसे छूती , इन हथे...

मैं, पापा और हमारी 'प्रिया'

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आगे आगे दौड़ती ज़िंदगी और दूर कहीं पीछे छूट गया मेरा घर, मेरे पापा और उनकी पीली स्कूटर 'प्रिया', जिसपे बिठा के उन्होने मुझे बचपन में दुनिया घुमाई... बचपन की कितनी सारी खुशनुमा यादें हैं जो सिर्फ़ पापा की स्कूटर पे बैठ के पुर शहर भर के चक्कर काटने से जुड़ी हैं..जब भी पापा स्कूटर स्टेंड से उतारते तो मैं और मेरा भाई घर के किसी भी कोने मे हों,  तुरंत चौकन्ने हो जाते थे की कहाँ गयी मेरी चप्पल..?? :p इस से पहले की पापा अकेले ही निकल जाएँ हम दोनो को अपनी अपनी चप्पल ढूंढ के रेडी रहना होता था.. :D :D फिर बस धीरे से मुस्कुराते हुए पापा की नज़र के आगे आ जाना होता था और पापा पूछते ही थे.."चलोगे क्या??" .........और हम दोनो अपने दाँत चीकार देते..फिर क्या, भैया पीछे बैठ जाते और हम आगे खड़े होते थे.. :)) पापा को जाना कहीं भी हो, स्कूटर लौट के आती कटरा के चन्द्रा स्वीट्स और नेतराम के सामने से ही थी...उस ट्रिप का सबसे सुहाना पार्ट ही यही होता था जब पापा अपना सब काम-वाम ख़तम कर के अपनी स्कूटर मैंगो शेक की दुकान के बाहर खड़ी कर देते थे..जहाँ हम दोनो को बोलना नही पड़ता था पा...